जब अपने ही हमें नहीं समझते…
सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती है जब हमें समझने वाला कोई दूर का नहीं, बल्कि हमारा “अपना” ही नहीं होता।
हम जिनसे उम्मीद रखते हैं—माँ, पिता, भाई, बहन, पति या पत्नी—अगर वही हमारी भावनाओं को समझने की बजाय उन्हें नज़रअंदाज़ करें, तो दिल टूट जाता है। वो बातें जो हम हिम्मत करके कहते हैं, बस एक मुस्कान या एक सहारा पाने के लिए… अगर उन्हें ही मज़ाक में ले लिया जाए, तो इंसान खुद को बहुत अकेला महसूस करने लगता है।
एकांत और चुप्पी का दर्द
कई बार हम हँसते हैं, बात करते हैं, खाना बनाते हैं, ज़िम्मेदारियाँ निभाते हैं—पर अंदर से टूटे होते हैं। किसी ने कभी पूछा भी नहीं कि हम क्या महसूस कर रहे हैं।
“क्या हुआ?”
“सब ठीक तो है?”
“थकी हुई लग रही हो, बैठो थोड़ा।”
ऐसे छोटे-छोटे जुमले, अगर अपने कहें… तो दिल को राहत मिलती है। लेकिन अगर वो भी चुप रहें, तो हमारी चुप्पी और गहरी होती जाती है।
रिश्तों में संवाद क्यों ज़रूरी है?
हर रिश्ता दोतरफा होता है। केवल देना ही नहीं, समझना भी ज़रूरी है। जब हम बार-बार जताते हैं कि हमें तकलीफ हो रही है, और सामने वाला ध्यान ही नहीं देता, तो वो रिश्ता धीरे-धीरे खाली हो जाता है।
रिश्तों को समय, ध्यान और समझ की ज़रूरत होती है… सिर्फ मौजूदगी से कोई अपना नहीं बनता।
खुद को समझो, खुद से जुड़ो
अगर आपके अपने आपको नहीं समझते, तो इसका मतलब यह नहीं कि आप गलत हैं। कभी-कभी लोग इतने अपने में व्यस्त होते हैं कि उन्हें दूसरों की भावनाएँ दिखती ही नहीं।
इसलिए सबसे पहला क़दम है — खुद को समझना। अपने अंदर झाँक कर देखना कि आपको क्या चाहिए, क्या तकलीफ है, और कैसे आप खुद को थोड़ा प्यार दे सकते हैं।
खुद से दोस्ती कर लो, फिर कोई और समझे या न समझे… फर्क नहीं पड़ेगा।
🙌 निष्कर्ष
जब अपने ही हमें नहीं समझते, तो दर्द गहरा होता है। लेकिन ये भी सच है कि इस दर्द से निकलने की ताकत भी हमारे अंदर ही होती है। खुद को प्यार देना, खुद को समय देना, और उन लोगों से जुड़ना जो वाकई हमें समझते हैं — यही रास्ता है।