
रिश्ते निभाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ औरत की क्यों?
परिचय: रिश्तों की जटिलताएँ और महिलाओं की अनकही थकान
रिश्ते… एक ऐसा शब्द जो सुनते ही दिल में नर्माहट भी लाता है और कहीं न कहीं एक गहरी थकान भी। हर रिश्ते को संजोने की, उसे समझने की, सहेजने की, और हर हाल में निभाने की उम्मीद सबसे पहले और सबसे ज़्यादा एक औरत से ही क्यों की जाती है?
हमारे समाज में यह एक अलिखित नियम बन गया है — “अगर रिश्ता टूटे तो औरत ने निभाया नहीं, अगर कोई नाराज़ हो जाए तो औरत ने मनाया नहीं।” लेकिन क्या यह न्याय है?
भारतीय संस्कृति में रिश्तों को बहुत महत्व दिया जाता है, और ये अच्छा भी है, पर जब यह भावना किसी एक पक्ष पर बोझ बन जाए, तो वह खूबसूरत रिश्ता धीरे-धीरे बोझिल होने लगता है। महिलाओं को “समझदार”, “संवेदनशील”, “त्यागमयी” मानकर उनसे यह अपेक्षा कर लेना कि वे ही हर दर्द को चुपचाप सहें, हर टूटन को समेटें — यह कहीं न कहीं एक emotional exploitation की शक्ल ले चुका है।
🌍 सामाजिक और सांस्कृतिक अपेक्षाएँ: परंपरा बनाम आज की सच्चाई
जब एक छोटी बच्ची खेल रही होती है, तो उसके हाथ में अक्सर गुड़िया होती है — जैसे शुरू से ही उसे “संबंधों” की देखभाल का पाठ पढ़ाया जा रहा हो। वही बच्ची जब बड़ी होती है, तो उससे उम्मीद की जाती है कि वह परिवार की शांति बनाए रखे, सबका ख्याल रखे, झगड़े सुलझाए, भले ही उसके भीतर कितना भी तूफान चल रहा हो।
समाज उसे हर बार यह जताता है — “तुम लड़की हो, तुम्हें ही निभाना होगा।”
पर कोई यह क्यों नहीं पूछता कि उस लड़की के दिल में क्या चल रहा है?
वो भी थकती है, टूटती है, रोती है, पर उसकी आँखों के आँसू भी तब तक मायने नहीं रखते जब तक वह उन्हें ज़ाहिर ना करे। यही वजह है कि कई बार औरतें रिश्तों में रहकर भी खुद को अकेला, अनसुना और खाली महसूस करती हैं।
👨👩👧👦 पुरुषों की भूमिका: चुप्पी नहीं, भागीदारी चाहिए
रिश्ते दो लोगों के बीच बनते हैं, तो उनकी ज़िम्मेदारी भी दोनों की होनी चाहिए। लेकिन अक्सर देखा गया है कि पुरुषों को समाज ने ये सिखाया ही नहीं कि भावनाएँ ज़ाहिर करना, किसी की भावनाओं की कद्र करना और घरेलू ज़िम्मेदारियों में हाथ बँटाना मर्दानगी को कम नहीं करता — बल्कि इंसानियत को बढ़ाता है।
अब समय आ गया है कि पुरुष भी रिश्तों में केवल भूमिका निभाने के बजाय साझेदार बनें।
एक “कमाने वाला” होने से ज़्यादा ज़रूरी है एक “समझने वाला” बनना।
जब पुरुष भी रिश्तों को निभाने में उतनी ही भावनात्मक भागीदारी दिखाएँगे, तब ही एक सच्चा संतुलन बन सकेगा — वरना एकतरफा कोशिश कभी भी दोतरफा रिश्ते को नहीं बचा सकती।
💡 समाधान और सुझाव: रिश्तों में सामंजस्य कैसे आए
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संवाद को प्राथमिकता दें:
जब तक हम बात नहीं करेंगे, कोई हमें समझ नहीं पाएगा। अपने मन की बात कहने में हिचकिचाएँ नहीं। और सामने वाले की बात को भी सुनिए — सच में, ध्यान से। -
समान भागीदारी की भावना:
चाहे वो बच्चों की परवरिश हो, घर की देखभाल हो या एक-दूसरे की मानसिक स्थिति को समझना हो — सबकुछ मिलकर करने में ही रिश्ता मजबूत होता है। -
भावनाओं को मान्यता दीजिए:
“तुम तो औरत हो, तुम्हें सब सहना चाहिए” — इस सोच को खत्म करिए। अगर कोई औरत दुखी है, थकी है, रो रही है — तो उसे यह कहने दीजिए कि “हाँ, मैं इंसान हूँ और मुझे भी थकान होती है।” -
गुणवत्ता समय बिताइए:
रिश्ते सिर्फ दायित्वों से नहीं चलते — वो हँसी, बातों, साथ बैठकर चाय पीने, और बिना किसी कारण गले लगाने से चलते हैं। -
सम्मान और सहानुभूति:
जब दोनों एक-दूसरे की ज़िम्मेदारियों को समझते हैं और एक-दूसरे की भावनाओं को महत्व देते हैं, तभी रिश्ते की नींव मजबूत होती है।
❤️ अंत में एक सवाल…
क्या रिश्ते निभाने का काम किसी एक की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए?
या फिर यह दो दिलों की साझेदारी होनी चाहिए, जहाँ दोनों एक-दूसरे के लिए उतनी ही चिंता, उतनी ही कोशिश और उतना ही प्यार दिखाएँ?
औरतें रिश्तों में हर संभव कोशिश करती हैं, पर अब समय आ गया है कि पुरुष भी आगे आएँ — ताकि रिश्ते सिर्फ निभाए न जाएँ, बल्कि साथ में जिए जाएँ।
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