जब माता-पिता का दबाव बच्चों की ज़िंदगी छीन लेता है
माता-पिता का दबाव: बच्चों का बचपन और सपने क्यों टूटते हैं
प्रस्तावना
हम सबने बचपन में यह सुना है – “पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो हो जाओगे खराब।”
पर क्या यह सच है? क्या सचमुच सिर्फ़ किताबों के पन्नों में ही ज़िंदगी की असली उड़ान छुपी है?
आज के समय में बच्चों पर सबसे बड़ा दबाव यही है – “अच्छे नंबर लाओ, फर्स्ट आओ, दूसरों से आगे निकलो।”
माता-पिता का मानना होता है कि वे बच्चे की भलाई चाहते हैं, लेकिन कई बार उनका यही “भला” बच्चों की आत्मा को तोड़ देता है।
बचपन और दबाव
बचपन हर इंसान की ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दौर होना चाहिए। खेल, दोस्ती, मस्ती, और मासूमियत – यही तो असली ताक़त है। लेकिन जब यही बचपन किताबों, कॉपियों और दबाव में कैद कर दिया जाता है, तो वह मासूमियत धीरे-धीरे दम तोड़ देती है।
कई माता-पिता यह सोचते हैं कि अगर बच्चा हर समय पढ़ेगा, तो वह सफल बनेगा। पर असलियत यह है कि बच्चे मशीन नहीं होते। उन्हें भी सांस लेने, खेलने, हंसने और खुलकर जीने का अधिकार है।
समाज की मानसिकता
हमारे समाज में एक दौड़ लगी हुई है।
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“फलाने का बेटा डॉक्टर बन गया, तुम्हें भी बनना है।”
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“वो बच्चा फर्स्ट आया, तुम क्यों फेल हुए?”
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“अगर अच्छे नंबर नहीं लाए, तो तुम्हारा भविष्य अंधकारमय है।”
ऐसे जुमले बच्चों के दिमाग़ और दिल में ज़हर की तरह उतर जाते हैं। धीरे-धीरे बच्चा सोचने लगता है कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है, वह सिर्फ़ “नंबर” और “रिज़ल्ट” है।
जब माँ का प्यार दबाव बन जाए
हर माँ अपने बच्चे से प्यार करती है। लेकिन कई बार यह प्यार भी एक अजीब-सा दबाव बन जाता है।
सोचिए, एक बच्चा जिसे खेलना है, दौड़ना है, दोस्तों से बात करनी है, वह हर वक्त सिर्फ़ किताबों में घुसा रहे। और अगर वो तुरंत याद न कर पाए तो डांट, सज़ा और शर्मिंदगी उसका इंतज़ार करे।
ऐसे में बच्चे को यह महसूस होने लगता है कि वह माँ की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा। वह सोचने लगता है कि शायद वह “कमज़ोर” है। और यही सोच उसे अंदर से तोड़ देती है।
आत्महत्या की सोच क्यों आती है?
भारत में लाखों बच्चे हर साल परीक्षा और पढ़ाई के दबाव में आत्महत्या कर लेते हैं।
क्यों?
क्योंकि वे यह मान लेते हैं कि अगर उन्होंने अच्छे नंबर नहीं लाए तो उनकी कोई कीमत नहीं है।
उन्हें लगता है कि उनका जीना बेकार है, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें स्वीकार ही नहीं करेंगे।
असलियत यह है कि बच्चा कमजोर नहीं होता, कमजोर होती है उसकी भावनात्मक स्थिति जिसे माता-पिता समझ नहीं पाते।
माता-पिता की भूमिका
माता-पिता का कर्तव्य बच्चों को सही राह दिखाना है, न कि उनकी राह बंद कर देना।
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बच्चे से कहें: “तुम कोशिश करो, हम तुम्हारे साथ हैं।”
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अगर बच्चा फेल हो जाए तो उसे यह महसूस कराएं कि असफलता भी सीखने का हिस्सा है।
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बच्चे को अपने सपनों का पीछा करने दें, न कि अपनी अधूरी इच्छाओं का बोझ उस पर डालें।
रिश्तों की ज़रूरत या समाज का दबाव?
कभी-कभी यह भी सवाल उठता है कि क्या रिश्ते ज़रूरी हैं, या यह सिर्फ़ समाज का बनाया हुआ ढांचा है?
असल में रिश्ते हमें सहारा देने के लिए होते हैं। लेकिन जब वही रिश्ता घुटन और दबाव का कारण बन जाए, तो वह बोझ लगने लगता है।
माता-पिता अगर बच्चों को प्यार, आज़ादी और समझ देंगे, तभी रिश्ता मज़बूत बनेगा। वरना बच्चा उनसे दूर जाने लगेगा।
समाधान – बच्चों को कैसे बचाएं?
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पढ़ाई और खेल में संतुलन: बच्चों को खेलने और पढ़ने का बराबर समय दें।
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तुलना न करें: हर बच्चा अलग होता है, तुलना सिर्फ़ हीनभावना भरती है।
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सुनना सीखें: बच्चे क्या चाहते हैं, उनकी बात सुनें।
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भावनात्मक सहारा दें: अगर बच्चा उदास है, तो उसे गले लगाइए, डांटिए मत।
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खुला माहौल दें: घर ऐसा हो जहाँ बच्चा बिना डर अपने मन की बात कह सके।
निष्कर्ष
माता-पिता अपने बच्चों से दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं। लेकिन जब यह प्यार दबाव में बदल जाता है, तो यह बच्चों के लिए जेल बन जाता है।
बच्चों को चाहिए आज़ादी, समझ और प्यार। अगर हम उन्हें सिर्फ़ पढ़ाई और तुलना के नाम पर दबाएंगे, तो वे कभी खुश नहीं रह पाएंगे।
हर माता-पिता को यह याद रखना चाहिए –
“बच्चा हमारी संपत्ति नहीं, हमारी ज़िम्मेदारी है। उसे अपनी तरह खिलने का हक़ है।”
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