
“जब सपने और ज़िम्मेदारियाँ आमने-सामने हों”
जब सपनों और ज़िम्मेदारियों के बीच फंस जाए दिल
क्या आपने कभी अपने सपनों को दबा दिया है क्योंकि ज़िम्मेदारियाँ भारी पड़ गईं? पढ़िए एक औरत के दिल से निकली सच्ची कहानी जो हर किसी को छू जाएगी।
कभी-कभी ज़िंदगी ऐसे मोड़ पर ला देती है जहाँ सपने और ज़िम्मेदारियाँ आमने-सामने खड़े हो जाते हैं। एक तरफ़ होता है दिल, जो उड़ना चाहता है… कुछ बनना चाहता है। और दूसरी तरफ़ होती हैं वो ज़िम्मेदारियाँ, जो हमें खींच कर ज़मीन पर ले आती हैं।
मैंने भी बचपन में कई सपने देखे थे—कभी टीचर बनने का, कभी लिखने का, कभी अपने लिए कुछ करने का। लेकिन पापा नहीं रहे और माँ अकेली थीं, इसलिए छोटी उम्र से ही ज़िम्मेदारियों को समझना शुरू कर दिया।
फिर शादी हुई… नए रिश्ते, नए सपने, पर अपने सपनों को फिर से पीछे करना पड़ा। एक बार नहीं, कई बार।
लेकिन क्या हर औरत को सिर्फ दूसरों के लिए जीना चाहिए? क्या हम अपने लिए थोड़ा सा नहीं जी सकते?
अब जब दिल थकने लगता है, तब मैं लिखती हूं—क्योंकि ये मेरी आवाज़ है। और हर उस औरत की जो अपने सपनों को दिल में ही दफ़न कर देती है।
आज मैं आपसे सिर्फ इतना कहना चाहती हूं—अपने सपनों को आवाज़ दो। भले ही धीमे-धीमे सही, लेकिन खुद के लिए ज़रूर जियो।
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