
मैं बदल रही हूँ… और ये बदलाव किसी जिद, किसी गुस्से या किसी अचानक लिए गए फैसले का नतीजा नहीं है, बल्कि उन अनगिनत दिनों और रातों का परिणाम है जहाँ मैंने खुद को चुपचाप टूटते हुए देखा, महसूस किया और फिर भी हर बार यही सोचा कि शायद यही मेरी किस्मत है, शायद यही सही है, शायद मुझे ही ज़्यादा समझदार बनना चाहिए, ज़्यादा सहन करना चाहिए, ज़्यादा झुक जाना चाहिए।
मैं पहले जैसी थी, वो भी बुरी नहीं थी।
मैं वो इंसान थी जो हर किसी की बात सुनती थी, हर किसी के दर्द को अपना समझ लेती थी, जो रिश्तों को बचाने के लिए खुद को खो देने से भी नहीं डरती थी। मैं वो थी जो हर बार खुद से पहले दूसरों के बारे में सोचती थी, जो हर हाल में “सब ठीक है” कहकर मुस्कुरा देती थी, भले ही अंदर कुछ भी ठीक न हो।
लेकिन अब जब पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो समझ आता है कि मैं अच्छी नहीं, सिर्फ सुविधाजनक थी।
लोगों के लिए आसान थी, क्योंकि मैं सवाल नहीं करती थी, शिकायत नहीं करती थी, अपनी तकलीफ ज़्यादा देर तक ज़िंदा नहीं रखती थी। मैं हर किसी की उम्मीदों में खुद को फिट करने की कोशिश करती रही, ये सोचे बिना कि कहीं इस कोशिश में मैं खुद से तो दूर नहीं होती जा रही।
मैंने हमेशा खुद को आख़िरी नंबर पर रखा।
जब किसी को मेरी ज़रूरत थी, मैं हाज़िर थी।
जब किसी ने मुझे नज़रअंदाज़ किया, तब भी मैंने समझने की कोशिश की।
जब कोई मेरे जज़्बातों को हल्के में ले गया, तब भी मैंने खुद को ही समझाया कि शायद मेरी feelings ज़्यादा होंगी।
और इसी “शायद” में, मैं धीरे-धीरे खुद को खोती चली गई।
टूटना एक दिन में नहीं होता।
टूटना बहुत धीरे होता है — हर उस पल में जब आप बोलना चाहते हैं लेकिन चुप रह जाते हैं, हर उस दिन जब आप रोना चाहते हैं लेकिन मुस्कुरा देते हैं, हर उस रिश्ते में जहाँ आप खुद को समझाते-समझाते थक जाते हैं, लेकिन सामने वाला कभी रुककर ये नहीं पूछता कि “तुम ठीक हो?”
मैं भी ऐसे ही टूटी।
बिना आवाज़ के।
बिना किसी गवाह के।
और सबसे ज़्यादा दर्द इस बात का था कि बाहर से सबको लगता रहा कि मैं बहुत strong हूँ, बहुत mature हूँ, बहुत समझदार हूँ। किसी ने ये नहीं देखा कि strong बने रहने की इस मजबूरी ने मुझे अंदर से कितना थका दिया था।
एक दिन ऐसा आया जब मैं और नहीं कर पाई।
न रो पाई, न समझा पाई, न खुद को संभाल पाई।
बस बैठकर ये सोचती रही कि क्या सच में मेरी ज़िंदगी का मतलब सिर्फ इतना ही है — सबके लिए होना, लेकिन खुद के लिए कभी नहीं।
उसी दिन मुझे एहसास हुआ कि अगर अब भी मैं नहीं बदली, तो मैं पूरी तरह खत्म हो जाऊँगी।
बदलाव आसान नहीं होता।
बदलाव के साथ guilt आता है, डर आता है, लोगों की बातें आती हैं।
जब मैंने boundaries बनानी शुरू कीं, तो लोगों ने कहा कि मैं बदल गई हूँ।
जब मैंने “ना” कहना सीखा, तो लोगों को बुरा लगा।
जब मैंने खुद को प्राथमिकता दी, तो मुझे selfish कहा गया।
लेकिन कोई ये नहीं पूछता कि मैं पहले कैसी हालत में थी।
कोई ये नहीं देखता कि ये बदलाव कितनी रातों की चुप रोने के बाद आया है।
अब मैं हर जगह available नहीं रहती।
अब मैं हर रिश्ते में खुद को prove करने की कोशिश नहीं करती।
अब मैं हर सवाल का जवाब देने की ज़रूरत महसूस नहीं करती।
और ये सब करते हुए भी कई बार मन काँप जाता है, guilt घेर लेता है, दिल कहता है कि शायद मैं गलत हूँ, शायद मुझे फिर से पहले जैसा हो जाना चाहिए।
लेकिन फिर मैं खुद को याद दिलाती हूँ — पहले जैसा होना मुझे अंदर से मार रहा था।
मैं अब हर किसी को खुश नहीं करना चाहती, क्योंकि मैंने सीख लिया है कि सबको खुश रखने की कीमत अक्सर खुद की खुशी होती है।
मैं अब कम बोलती हूँ, लेकिन सच बोलती हूँ।
मैं अब चुप रहती हूँ, लेकिन मजबूरी में नहीं, समझदारी से।
मैं बदल रही हूँ क्योंकि अब मुझे खुद से प्यार करना सीखना है।
क्योंकि अब मुझे अपनी भावनाओं को हल्के में नहीं लेना।
क्योंकि अब मुझे ये मान लेना है कि अगर कोई मुझे मेरे बदले हुए रूप में स्वीकार नहीं कर सकता, तो शायद वो कभी मेरे साथ चलने के लिए बना ही नहीं था।
ये बदलाव किसी के खिलाफ़ नहीं है।
ये बदलाव खुद के लिए है।
मैं आज भी emotional हूँ, आज भी महसूस करती हूँ, आज भी कभी-कभी कमज़ोर पड़ जाती हूँ।
लेकिन फर्क इतना है कि अब मैं खुद को उस कमज़ोरी के लिए सज़ा नहीं देती।
मैं बदल रही हूँ…
और ये ज़रूरी था।
क्योंकि खुद को खोकर निभाई गई ज़िंदगी, ज़िंदगी नहीं होती।
अगर इस बदलाव में कुछ लोग मुझसे दूर हो गए, तो शायद वो कभी मेरे अपने थे ही नहीं।
और अगर इस बदलाव में मैंने खुद को पा लिया, तो इससे बड़ी जीत कोई नहीं।