भावनाओं को हमेशा पीछे क्यों रखा जाता है?
औरत की ज़िंदगी एक ऐसे सफ़र की तरह होती है,
जिसमें रास्ते तो बहुत होते हैं,
पर मंज़िल अक्सर वही चुननी पड़ती है
जो दूसरों को सही लगती है।
वो पैदा होते ही रिश्तों में बाँध दी जाती है।
बेटी बनकर उम्मीदें ढोती है,
बहन बनकर समझौते सीखती है,
पत्नी बनकर ज़िम्मेदारियों में ढल जाती है,
और माँ बनते-बनते
खुद को कहीं पीछे छोड़ देती है।
कभी किसी ने उससे ये नहीं पूछा
कि वो क्या चाहती है,
उसका सपना क्या है,
उसकी थकान कितनी गहरी है।
औरत की मुस्कान — सबसे बड़ा भ्रम
औरत की मुस्कान दुनिया का सबसे बड़ा धोखा होती है।
लोग समझ लेते हैं कि वो खुश है,
जबकि असल में वो सिर्फ़
सबको परेशान न करने की कोशिश कर रही होती है।
वो हँसते हुए खाना परोस देती है,
रोते हुए घर संभाल लेती है,
टूटते हुए भी रिश्ते जोड़ती रहती है।
उसके चेहरे पर शिकन आए तो कहा जाता है —
“हर बात का इतना क्यों सोचती हो?”
और अगर वो चुप हो जाए तो —
“तुम्हें बोलना ही नहीं आता।”
भावनाओं को हमेशा पीछे क्यों रखा जाता है?
औरत को बचपन से सिखाया जाता है —
अपनी भावनाओं को दबाना।
ग़ुस्सा आए तो सह लो,
दर्द हो तो मुस्कुरा लो,
और अगर ज़्यादा तकलीफ़ हो
तो चुपचाप रो लो — अकेले में।
उसके आँसू कभी “ज़रूरत” नहीं बनते,
बस “कमज़ोरी” कहे जाते हैं।
जब वो थकती है,
तो कहा जाता है —
“घर का काम तो औरतों का ही होता है।”
जब वो सपने देखती है,
तो कहा जाता है —
“शादी के बाद देखना।”
और जब वो खुद के लिए कुछ माँगे,
तो उसे “स्वार्थी” कहा जाता है।
रिश्तों में खोती हुई पहचान
सबसे दर्दनाक बात ये है
कि औरत धीरे-धीरे
अपनी पहचान खो देती है।
वो किसी की बेटी है,
किसी की पत्नी है,
किसी की माँ है,
किसी की बहू है…
लेकिन
वो खुद कौन है —
ये सवाल कहीं गुम हो जाता है।
उसकी पसंद बदल दी जाती है,
उसकी आवाज़ धीमी कर दी जाती है,
और उसके सपनों को
“हालात” कहकर मार दिया जाता है।
ख़ामोशी का बोझ
औरत की ख़ामोशी
कभी उसकी ताक़त नहीं होती,
अक्सर उसकी मजबूरी होती है।
वो बोलना चाहती है,
पर डरती है कि कहीं कोई
उसकी बात को मज़ाक न बना दे।
वो शिकायत करना चाहती है,
पर सोचती है —
“कौन समझेगा?”
इसलिए वो चुप रह जाती है।
और यही चुप्पी
धीरे-धीरे उसे अंदर से
खोखला कर देती है।
औरत मज़बूत नहीं — मजबूर बनाई जाती है
लोग कहते हैं —
“औरत बहुत मज़बूत होती है।”
लेकिन सच ये है
कि औरत को मज़बूत बनाया जाता है।
उसके पास कोई और विकल्प नहीं छोड़ा जाता।
अगर वो टूट जाए,
तो कहा जाता है —
“इतनी सी बात पर?”
अगर वो सह ले,
तो उसे आदर्श बना दिया जाता है।
लेकिन कोई ये नहीं देखता
कि वो कितनी बार
खुद के टुकड़े जोड़कर
दूसरों के लिए खड़ी रही।
उसकी ज़रूरतें बहुत छोटी होती हैं
औरत किसी महल की माँग नहीं करती।
वो बस इतना चाहती है —
• कोई उसकी बात ध्यान से सुने
• कोई उसकी थकान समझे
• कोई उसकी भावनाओं का मज़ाक न उड़ाए
• कोई उसे “सिर्फ़ औरत” नहीं, “इंसान” माने
उसे रोज़ तारीफ़ नहीं चाहिए,
बस कभी-कभी
ये सुनना चाहिए —
“तू बहुत क़ीमती है।”
रोना उसकी हार नहीं है
औरत अगर रो दे,
तो इसका मतलब ये नहीं
कि वो कमज़ोर है।
रोना उसकी आत्मा की
सफ़ाई होती है।
वो रोकर फिर खड़ी हो जाती है,
फिर सबके लिए मुस्कुरा देती है,
फिर अपनी भावनाओं को
किसी कोने में बंद कर देती है।
अगर औरत खुद के लिए जी ले…
सोचिए अगर औरत
थोड़ा सा खुद के लिए जी ले…
अगर वो अपनी पसंद की दुनिया बना ले,
अगर वो “ना” कहना सीख ले,
अगर वो अपने सपनों को
फिर से जीने की हिम्मत कर ले…
तो दुनिया और खूबसूरत हो जाएगी।
क्योंकि एक खुश औरत
सिर्फ़ खुद को नहीं,
पूरे परिवार को रोशन करती है।
आख़िरी बात
औरत को समझने के लिए
उसे बदलने की ज़रूरत नहीं,
उसे सुनने की ज़रूरत है।
उसकी भावनाएँ बोझ नहीं हैं,
वो उसकी सच्चाई हैं।
अगर आप किसी औरत को जानते हैं —
माँ, बहन, पत्नी, दोस्त —
तो बस एक बार उससे कहिए:
“तू जैसी है, वैसी ही पूरी है।”
शायद यही शब्द
उसके अंदर की थकी हुई औरत को
थोड़ा सा सुकून दे दें।
बहुत मार्मिक प्रस्तुति।